1. जीवों में जनन (Reproduction in Organisms)


जीवन- अवधि:- किसी जीव के जन्म को लेकर प्राकृतिक मृत्यु की अवधि को जीवन अवधि कहते है।


किसी जीव की जीवन अवधि का उसके आकार से कोई सम्बद्ध नहीं होता है जैसे:-


फसली पादप(Cropped crop)    –      4-6 माह


गुलाब (Rose)        –      10 वर्ष


केला(banana)          –      25 वर्ष


बरगद(Banyan)         –      300-500 वर्ष


मनुष्य (humans) :-      100 वर्ष


तोता (Parrot)  :-      150 वर्ष


मगरमच्छ(crocodile)      :- 55 वर्ष


कछुआ (tortoise) :-      150 वर्ष


व्हेल(Whale)    :-      40 वर्ष


हाथी(elephant)    :-      75 वर्ष


बिल्ली(cat)  :-      40 वर्ष


खरगोश(rabbit) :-      35 वर्ष


घोडा(Horse)    :-      50 वर्ष


कबूतर (pigeon) :-      35 वर्ष


गाय(cattle)    :-      26 वर्ष


कौआ(Crow)   : –     15 वर्ष


शेर चीता, साँप, ऊँट तितली(Lion cheetah, snake, camel butterfly):-   10-15 दिन


केंचुआ(Earthworm)  :-      6 वर्ष


कॉकरोच(Cockroach)  :-  1/2 वर्ष


घरेलू मक्खी(Domestic fly)     :-  76 वर्ष


जनन(reproduction):-


प्रत्येक जीव अपने समान ही नया जीव संतति उत्पन्न करता है इस क्रिया को जनन कहते है। जनन के द्वारा पीढियों में निरन्तरता बनी रहती है तथा किसी जीव की मृत्यु होने पर भी उसकी जाति का असितत्व बना सकता है।


जनन के प्रकार (types of reproduction) :


अलैंगिक जनन(Asexual reproduction)  : वह जनन जिसमे दो जीवो की भागीदारी नहीं होती , इसमें एक जीव द्वारा ही संतान उत्पत्ति संभव हैं , अलैंगिक जनन कई प्रकार की विधियों द्वारा होता हैं। इसमें उत्पन्न संतति पैरेंट के समान होगी अर्थात अनुवांशिक रूप से समान होगी।


लैंगिक जनन(Sexual reproduction) : इसमें दो भिन्न जीवों की भागीदारी आवश्यक है।  इसमें नर तथा मादा दो भिन्न जीवो के सहयोग या मिलने से संतति का निर्माण होता है अर्थात यह अनुवांशिक रूप से भिन्न होती है इसे लैंगिक जनन कहते है।


अलैंगिक जनन(asexual reproduction):- 


प्रत्येक जीव के जीवन का प्रारंभ एक कोशिका से होता है यदि यह एक कोशिका एक ही जनक द्वारा प्रदान की गई तो इसे अलैगिक जनन कहते है।


अलैगिक जनन में बनी संतति आपस मेंतथा जनको से समान रखती है।


अलैगिक जनन में बनी संतति आपस में आकारिकी एवं आनुवाँशिक रूप से आपस में तथा जनकों के समरूप होती है अतः इन्हें क्लोन कहते है।


अलैंगिक जलल के प्रकार(types of asexual reproduction):-


अलैगिक जनन निम्न प्रकार से होता है।


1     सामान्य कोशिका विभाजन द्वारा:- प्रोटिस्टा , योनेरा


2     विखण्डन:- अमीबा, पेरामिसियम, युग्लीना


3     मुकुलन/कलिका अतिवृद्धि, असमान विभाजन:- यीस्ट ,हाइड्रा


4     अलैगिक बीजाणु द्वारा सूक्ष्मदर्शीय जूरूपोर्स:- कवक एवं कुछ शैवाल जैसे:- क्लेमाइडोमोनास


5     केनिडिया द्वारा:- पेनिसिलियम


6      जेम्यूल:- स्पंज


कायिक जनन (plant reproduction):- 


पादपों में क्रामिक भागों जैसे:- जड, तलना, पत्ती, नदी के साथ होने वाले जनन को क्रारमिक जनन कहते है।


कायिक जनन में भाग लेनी वाली संरचना को कायिक प्रवर्ध्य (प्रोपेग्यूल ) कहते है।


कायिक जनन एक प्रकार का अलैगिक जनन है। तथा इससे बनी संतति को क्लोन(Clone) भी कह सकते है।


 कायिक जनन के प्रकार(types of plant reproduction):-


कायिक जनन प्राकृतिक रूप से होता है किन्तु कृत्रिम रूप से कायिक जनन कराया जा सकता है।


कायिक जनन:-


1- प्राकृतिक(Natural)


2- कृत्रिम(Artificial)


शीशम , सीरस , मुराया ,शकरकंद , एस्पेरेगस


भूमिगत , अर्धवायवीय , वायवीय


कंद – पर्णसंधि द्वारा (आरव) , आलू


प्रकंद – अदरक , केला


शकंद – प्याज


धनकंद – अरबी


उपरिभुस्तरी – दूब घास


अन्तः भुस्तरी – पोदीना


भूस्तरी – एक्ट्राबेरी


भूस्तारिका


जलकुम्भी


गन्ना


पर्ण (Foil) 


पत्थरचट्टा (अपस्थानिक कलिका )


बिगोनिया


पत्त प्रकन्द (Leaf rhizome)-


अगेब


लिलियम


डायोस्कोरिया


कायिक जनन (vegetative reproduction in plants in hindi) : पौधों में जनन मुख्य रूप से दो विधियों – लैंगिक और अलैंगिक द्वारा होता है। लैंगिक जनन में युग्मकों के संलयन द्वारा नयी जीनी संरचना वाली संतति उत्पन्न होती है जबकि अलैंगिक जनन में युग्मकों का संलयन हुए बिना ही नयी संतति उत्पन्न होती है। अलैंगिक जनन में चूँकि युग्मकों का संलयन नहीं होता है इसलिए उत्पन्न संतति जनक पादपों के समान होती है। अलैंगिक जनन दो प्रकार का होता है –


1. अनिषेकबीजता (agamospermy) : इस जनन प्रक्रिया में बीजों का निर्माण होता है , लेकिन युग्मकों का संलयन नहीं होता है।


2. कायिक जनन (vegetative reproduction) : इस जनन में पादप के कायिक भागों द्वारा नए पादप का निर्माण होता है।


वह प्रक्रिया जिसके अंतर्गत पादप शरीर का कोई भाग पृथक होकर , नए स्वतंत्र पादप के रूप में पुनर्जनन या विकसित होता है , कायिक जनन कहलाती है।


इस प्रकार की जनन प्रक्रिया आवृतबीजी पौधों में बहुतायत से पायी जाती है और मनुष्य द्वारा इसका अत्यधिक उपयोग , इच्छित किस्म के पौधे को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। कायिक जनन के परिणामस्वरूप पौधों की संख्या में बढ़ोतरी होती है इसलिए सामान्यतया इस प्रक्रिया को कायिक गुणन या कायिक प्रवर्धन भी कहा जाता है। कायिक प्रवर्धन की प्रक्रिया को दो वर्गों में बाँटा गया है –


I. प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (natural vegetative propagation)


II. कृत्रिम कायिक प्रवर्धन (artificial vegetative propagation)


I. प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (natural vegetative propagation) : अनेक शाकीय और काष्ठीय बहुवर्षी पौधे प्राकृतिक रूप से कायिक प्रवर्धन करते है। इनकी सामान्य कायिक संरचनाएँ जैसे – जड़ , तना , पत्तियाँ और कलिकाएँ आदि रूपान्तरित होकर इस प्रक्रिया में भाग लेती है। इनके कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से है –


1. जड़ों द्वारा कायिक प्रवर्धन (vegetative propagation by roots) : कुछ पौधों , जैसे शकरकन्द , डहेलिया और शतावरी आदि की जड़ें कंदिल होती है और इनमें प्रचुर मात्रा में खाद्य पदार्थ संचित रहते है। इस प्रकार की कंदिल जड़ों को जब विशेष रूप से तैयार उपजाऊ मिट्टी की क्यारियों में बोया जाता है तो इनसे अपस्थानिक कलिकाएँ विकसित होती है जो आगे चलकर पर्णिल प्ररोहों के रूप में परिवर्धित हो जाती है। पर्णिल प्रोहो को स्लिप्स कहते है। कंदिल जड़ें बड़े आकार की होती है और इनमें प्रचुर मात्रा में खाद्य पदार्थ संगृहीत रहते है। अत: इनके प्रत्येक कंद से बहुसंख्य स्लिप्स का विकास होता है। ये तरुण स्लिप्स आगे चलकर कंद की मुख्य संरचना से पृथक हो जाते है और नये पौधे के रूप में परिवर्धित होते है।


कुछ अन्य बहुवर्षीय काष्ठीय पौधों जैसे सिरस , कामिनी और शीशम में भूमि की सतह के ठीक निचे पायी जाने वाली जड़ों की शाखाओं से थोड़ी थोड़ी दूरी अथवा अंतराल पर अपस्थानिक कलिकाएँ विकसित होती है। इन कलिकाओं में आगे चलकर प्ररोह शाखाएँ परिवर्धित होती है जो कि नए पौधे का निर्माण करती है। मुख्य पादप शरीर से अलग होने पर ये स्वतंत्र रूप से नये पौधे के रूप में जीवनयापन करते है।


उद्यानों में उगाये जाने वाले अनेक शोभाकारी पौधों जैसे फ्लाक्स और डहेलिया आदि में भी जड़ों के द्वारा कायिक प्रवर्धन होता है। इन जड़ों को टुकडो में काटकर मिट्टी में दबा देते है या ये प्राकृतिक रूप से मुख्य पादप शरीर से अलग होकर नए स्वतंत्र पौधे के रूप में विकसित हो जाते है।


2. तने द्वारा कायिक प्रवर्धन (vegetative propagation by stem) :या कायिक प्रवर्धन की अति सामान्य और बहु प्रचलित विधि है। यहाँ विभिन्न प्रकार के रूपान्तरित भूमिगत और वायवीय तने जैसे प्रकन्द , कंद , शल्क कंद , उपरिभूस्तारी अन्त: भूस्तारी और विरोही अथवा भूस्तारी आदि कायिक प्रवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।


(i) कन्द (tuber) : यह रूपान्तरित भूमिगत तना है। यह भूमिगत तने की शाखाओं के शीर्ष पर खाद्य पदार्थो के संचयन से बनते है। कन्द की पर्वसन्धियों पर कक्षीय कलिकाएँ होती है जिन्हें आँख कहते है।


अनुकूल परिस्थितियों में कलिका वृद्धि कर नव पादप में विकसित हो जाती है। उदाहरण आलू , हाथीचक आदि।


(ii) प्रकन्द (rhizome) : यह रूपान्तरित भूमिगत तना है जो मोटा , माँसल , चपटा और क्षैतिज वृद्धि करता है। इसमें स्पष्ट और सुविकसित पर्व और पर्व सन्धियाँ पायी जाती है। पर्वसंधियों पर शल्क पत्र उपस्थित होते है और इनकी कक्ष में कक्षीय कलिकाएँ होती है। ये कलिकाएँ प्रसुप्तावस्था में रहती है और अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरण द्वारा वायवीय प्ररोह में विकसित हो जाती है। उदाहरण – अरबी , अदरक , हल्दी आदि।


(iii) शल्क कन्द (bulb) : यह अत्यधिक हासित भूमिगत स्तम्भ होता है। यह प्राय: उत्तल अथवा शंक्वाकार अथवा बिम्ब के समान होता है जिसकी ऊपरी सतह माँसल पत्तियां और निचले भाग पर अपस्थानिक मूलों का गुच्छ उपस्थित होता है। कन्द के मध्य (मांसल पत्तियों द्वारा परिबद्ध) शीर्षस्थ कलिका स्थित होती है जिसके अंकुरण द्वारा नव पादप विकसित होता है। उदाहरण – प्याज , लहसुन आदि।


(iv) धनकन्द (corm) : यह एक रूपान्तरित प्रकन्द है जो उर्ध्वाकार वृद्धि करता है। यह गोलाकार और हासित पर्वों युक्त होता है। पर्वसंधियों पर भूरे , सूखे शल्कपत्रों की कक्ष में कक्षीय कलिकाएँ होती है। अनुकूल परिस्थितियों में प्रत्येक कलिका से प्ररोह विकसित होता है। उदाहरण – क्रोकस , ग्लेडियोलस आदि।


(v) उपरिभूस्तारी (runner) : यह बेलनाकार , पतली , श्यान वायवीय शाखाएँ है जो मृदा सतह पर क्षैतिज रेंगती हुई वृद्धि करती है। इनके पर्व लम्बे होते है। पर्व सन्धि की निचली सतह पर अपस्थानिक मूल विकसित होती है और कक्षीय कलिकाएँ नयी शाखाओं का निर्माण करती है। शाखाएँ मातृ पादप से पृथक होकर स्वतंत्र पादप में विकसित हो जाती है। उदाहरण – दूबघास , खट्टीबूटी , फ्रेगेरिया आदि।


(vi) भूस्तारी (stolon) : इसमें तने के भूमिगत भाग से लम्बी पतली शाखाएँ विकसित होकर भूमि के अन्दर क्षैतिज वृद्धि करती है। कुछ दूरी पर इनकी अन्तस्थ कलिका से एक वायवीय प्ररोह और अपस्थानिक मूल परिवर्धित हो जाती है तथा एक पादप बन जाता है।  इन शाखाओं को भूस्तारी कहते है। उदाहरण – इक्जोरा , कोलोकेसिया आदि।


(vii) अन्त:भूस्तारी (sucker) : तने के भूमिगत आधारी भाग की कक्षस्थ कलिकाओं से बनने वाली शाखाएँ तिरछी वृद्धि करते हुए भूमि से बाहर निकलकर वायवीय प्ररोह बनाती है। इन शाखाओं को अंत:भूस्तारी कहते है। ये मातृ पादप से पृथक होकर नव पादप में विकसित हो जाती है , क्योंकि इनकी आधारी पर्व संधियों पर अपस्थानिक मूल विकसित हो जाती है। उदाहरण – गुलदाउदी , पुदीना आदि।


गन्ने में तने का वह भाग जिसमें एक अथवा एक से अधिक पर्व सन्धियाँ और कलिकाएँ होती है , इसे काटकर मिट्टी में रोप दिया जाता है। इनमें कुछ समय बाद पर्वसन्धियों से अपस्थानिक जड़ें और कलिकाओं से वायवीय प्ररोह विकसित होते है। इसी प्रकार नागफली नामक केक्टस में और अन्य केक्टसों में तने का एक टुकड़ा (पर्णाभ स्तम्भ) मुख्य पौधे से अलग होकर मिट्टी में गिर जाता है और स्वतंत्र रूप ने नए पौधे में विकसित होता है।


लैंगिक जनन(Sexual reproduction):-


जब जनन प्रक्रिया में दो जीव जनक भाग लेते है तो उसे लैंगिक जनन कहते है इसमे अर्धसूत्री विभाजन एवं निश्चेतन की क्रिया होती है नर युग्मक एवं नया युग्मक बनते है जिनके संयोजन से बने युग्ननास के द्वारा नया जीव बनता है। लैंगिक जनन में बनी संतति आपस में एवं जनको से समरूप वाली होती है। लैगिक जनन की क्रियामें अधिक समय लगता है। तथा यह एक जटिल विस्तरित एवं धीमी प्रक्रिया है।


लैंगिक जनन(Sexual reproduction):-


जब जनन प्रक्रिया में दो जीव जनक भाग लेते है तो उसे लैंगिक जनन कहते है इसमे अर्धसूत्री विभाजन एवं निश्चेतन की क्रिया होती है नर युग्मक एवं नया युग्मक बनते है जिनके संयोजन से बने युग्ननास के द्वारा नया जीव बनता है। लैंगिक जनन में बनी संतति आपस में एवं जनको से समरूप वाली होती है। लैगिक जनन की क्रियामें अधिक समय लगता है। तथा यह एक जटिल विस्तरित एवं धीमी प्रक्रिया है।


जन्तुओं में लैंगिकता :-


दो प्रकार के होते है।


1     एक लिंगियता :-


2     द्वि लिंगियता  :-


(A)     एक लिंगीयता:-


वे जीव जिनके शरीर में एक ही प्रकार के जनन अंग पाये जाते है तथा वे एक ही प्रकार के युग्मक (नर अथवा मादा) उत्पन्न करते है उन्हें एकलिंगी जीव कहते है इस क्रिया को एक लिंगीयात कहते है।


उदाहरण:- तिलचट्टा एवं सभी स्तनधारी


(B)द्वि लिंगियता/उभयलिंगीयता:-


वे जीव जिनके शरीर में नर एवं मादा जनंनाग दोनों पाये जाते है तथा वे नर एवं माा दोनों प्रकार के युग्मक उत्पन्न करते है उन्हें द्विलिंगी जीव कहते है तथा इस क्रिया को द्वि लिंगियता कहते है।


उदाहरण:- हाइड्रा, स्पंज, फीता कृमि (टेपकर्म) केचुआ आदि।


२  पादपों में लैंगिकता:-


(A)एकलिंगी पुष्प:-


पुष्प में या तो पुकेंसर पाये जाते है या स्त्री केसर पाये जाते है। ऐसे पुष्पों ो एकलिंगी पुष्प कहते है। पुकेसर के पाये जाने पर पुष्प पुकेसरी तथा जायंाग के पाये जाने पर पुष्प स्त्री केंसरी कहलाता है।


उदाहरणः-मक्का, नारियल, पपीता, शहतूत।


(B) द्विलिंगी पुष्प/उभयलिंगी पुष्प:- पुष्प में नर जननाँग पुकेसर एवं माता जनंनाग स्त्री केंसर दोनो की उपस्थिति हो तो ऐसे पुष्प को द्विलिंगी पुष्प कहते है।


उदाहरण:- मटर, गुडहल, सरसों, पिटूनिया आदि।


(C) एकलिंगाश्रयी पादप:- जिस पादप पर एक ही प्रकार के पुष्प पाये जाते है उसे एकलिंगीश्रयी पादप कहते है।


उदाहरण:- पपीता, शहतूत शैवालों में ऐसे पाद विष्मथैलस कहलाते है। उदाहरण:-मारकेश्यिा


(D) द्विलिंगाश्रयी पादप:- ऐसे पादप जिन पर दोनो प्रकार के पुष्पा नर मादा या उभयलिंगी पुष्प पाये जाते हो उसे द्विंिगाश्रयी पादप कहते है।


उदाहरण:- मक्का, नारियल, कुक्कुरबीया (खीर ककडी) शैवालों में जब एक ही थेलस पर नर एवं मादा जननाँग दोनों पाये जाते है तो इनके समथैलस कहत है।


उदाहरण:-कारा

निषेचन (Fertilization):- नर तथा मादा युग्मकों के संयोजन की क्रिया को निषेचन कहते है। इससे द्विगुणित युग्मनज का मिर्माण होता है।


चित्र


बाह्य निषेचन (External fertilization):- जब निषेचन की क्रिया शरीर के बाहर हो तो उसे बाहा्र निषेचन कहते है उदाहरण:- मेढक, अस्धील मछलियाँ


इस प्रकार के निषेचन हेतु जलीय माध्यम की आवश्यकता होती है इसमें नर युग्मक अधिक संख्या में उत्पन्न किये जाते है क्योकि स्थानान्तरण के दौरान बहुत युग्मकों के नष्ट होने की संभावना रहती है।


आंतरिक निषेचन (Internal fertilization):-जबनिषेचन की क्रिया मादा शीरर के अन्दर होती है तो इसे आन्तरिक निषेचन कहते है।


उदाहरण:- अनुष्य, बन्दर


अनिषेक जनन(Non-fertilization):- बिना निषेचन के जनन की क्रिया को अभिषेक जनन कहते है। इसमें मादा युग्मक नर युग्मक से संयोजित हुये बिना ही युग्मनज में बदल जाता है।


उदाहरण:- रोटिकेश, मधुमक्खी, कुवर छिपकलियाँ एवं कुमक्षी


(Fertilization back phenomena)निषेचन पश्च घटनाएं:– निषेचन के पश्चात् युग्मनाज से भू्रण या निर्माण होता है तथा उससे नया जीव बनता है इस क्रिया को भूर्णोदभव  कहते है।


युग्मनज → भ्रूण →   नया जीव


कोशिका विभाजन विभेदन:-


भ्रूण के निर्माण की क्रिया दो कारकों पर निर्भर करती है।


1 पर्यावरण:-


2 जीव का जीवन चक्र:-


उदाहरण:- शैवालों में युग्मनज पर एक मोटी भित्ति बन जाती है जो उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों (सूखा,ठंड) से रक्षा करती है एवं लम्बे समय तक विश्रारित अवस्था में रहने के पश्चात् अनुकूल परिस्थितियों में यह अंकूरित होकर नयी संतति को जन्म देता है। उदाहरण:-द्विगुणित तक जीवन चक्र वाले पादपों में युग्मनज में अर्द्धसूत्री


उदाहरण:-विभाजन होता है तथा उसकसे अगुणित जीव बनता है।


पुष्पी पादपों में निषेचन पश्च घटनाएं(Fertile backbone events in flowering plants):-


पुष्पी पादपों ने पुष्प के बाह्रा दल पुकेसर झड जाते है तथा केवल स्त्री केंसर ही निषेचन के पश्चात् लगा रहता है। कुछ पादपों में ब्राह्रा दल फल बनने के पश्चात् भी पाये जाते है।


उदाहरण:-टमाटर, बैंगन, भिंडी।


निषेचन के पश्चात पुष्पीय भागों में निम्न प्रकार परिवर्तन होता है।


अण्डाशय              :- फल


अण्डाशय भित्ति  :- फल भित्ति


बीजाण्ड               :- बीज


बीज विकर्ण के पश्चात् अनुकुल परिस्थितियों में अंकुरित हाकर नये पादप को जन्म देता है।

युग्मनज के विकास के आधार पर जन्तुओ के प्रकार : दो प्रकार के होते है।
अण्ड प्रजक:-
वे जीव जिनमें युग्मनज का विकास मादा के शीरर के बाहर होता है तथा वे कैल्शियम युक्त कठोर कवच से ढके रहते है उन्हें अण्ड प्रजक कहते है। इनमें अण्डे के स्फूटन से शिशु संतति उत्पन्न होती है।
उदाहरण:-पक्षी, मेढक, सरीसर्व आदि इनमें प्रायः ब्राहा निषेचन होता है इनमें युग्मकों एवं युग्मनाज के नष्ट होने की संभावना अधिक होती है


अतः इनका उत्तर जीवन कम होता है।
सजीव प्रजक:-
वे जीव जिनमें युग्मनाज का विकास मादा के शीरर के न्दर होता है तथा निश्चित समय अवधि बाद प्रसव क्रिया के द्वारा शिुशु को जन्म दिया जाता है


उनके सजीव प्रजक कहते है।
उदाहरण:-मनुष्य, बन्दर, गाय, खरगोश
उदाहरण:-इनमें उचित देखभाल तथा संरक्षण के कारण इनकी उत्तरजीविता अधिक होती है।



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